बजट 2021 : आवश्यकताओं की कसौटी पर

Dr. Anil Kumar Roy     9 minute read         

अप्रैल महीने से वित्त वर्ष शुरू होने के पहले हर साल सरकार के द्वारा आगामी वर्ष के खर्च की रूपरेखा प्रस्तुत की जाती है। इसे ही बजट कहते हैं। खर्च की यह रूपरेखा देश की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है।

अप्रैल महीने से वित्त वर्ष शुरू होने के पहले हर साल सरकार के द्वारा आगामी वर्ष के खर्च की रूपरेखा प्रस्तुत की जाती है। इसे ही बजट कहते हैं। खर्च की यह रूपरेखा देश की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है। कुछ जरूरतें तो स्थायी होती हैं और कुछ जरूरतें ऐसी होती हैं, जिनकी गंभीरता में हर साल परिवर्तन होता है और समय एवं परिस्थितियों के अनुसार कभी कुछ नई जरूरतें उत्पन्न भी होती हैं तो कुछ पुरानी जरूरतें खत्म हो जाती हैं। इसलिए हर साल बजट तैयार करने की जरूरत होती है, जिसमें आवश्यकता की गंभीरता के अनुसार पैसे का आबंटन किया जाता है।

सबसे पहले देखते हैं कि देश के सम्मुख वे गंभीर आर्थिक आवश्यकताएँ क्या हैं, जिन्हें प्राथमिकता के तौर पर लिया जाना चाहिए और फिर बात करेंगे कि उन जरूरतों की पूर्ति के लिए इस बजट में क्या किया गया है।

अन्य वर्षों के बजट से इतर इस बार के बजट पर उम्मीदों के कई बोझ थे। लगभग एक वर्ष के कोविद 19 की दहशत और उसके कारण सख्त और लंबी बंदी ने पूरे आर्थिक ढाँचे की चूलें हिलाकर रख दी थीं। सबसे पहली जरूरत इसे सँभालने की थी। बेरोजगारी दूसरी सबसे बड़ी समस्या थी, जिसे दूर करने की दिशा में योजना-निर्माण की अपेक्षा इस बजट से की जा रही थी। जिस बढ़ी हुई महँगाई से आम आदमी त्राहि-त्राहि कर रहा है, उस पर लगाम लगाने की जरूरत थी। कोविद 19 से जूझने की योजना और बीमार स्वास्थ्य सेवाओं के इलाज की भी दरकार इस बजट से थी। लगभग बंद पड़ी शिक्षा के लिए भी अतिरिक्त वित्तीय प्रावधान की जरूरत थी। गरीब आदमी के हाथ में पैसा पहुँचाना इस बजट का तात्कालिक कार्यभार था। इसके साथ ही देश में धनी-गरीब के बीच लगातार बढ़ती हुई आर्थिक असमानता को कम करने का लक्ष्य इस बजट का होना चाहिए था। अर्थात यह बजट अर्थव्यवस्था के भयानक विनाश, रेकॉर्ड बेरोजगारी, आकाश छूती महँगाई, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा की नई आवश्यकताओं, अंतिम आदमी की कंगाली और बढ़ती हुई बेतहाशा असमानता की पृष्ठभूमि में पेश होना था। अभी ये सात समस्याएँ विकराल बनी हुई हैं, जिनका संबंध आर्थिक नीतियों से है। इन्हें दूर करने की अपेक्षा इस बजट से की जा रही थी। तो आइये, देखते हैं कि इन अपेक्षाओं की कसौटी पर कितना खड़ा उतरता है यह बजट।

अर्थव्यवस्था को सुधारने की चेष्टा करना इस बजट का प्राथमिक आर्थिक दायित्व था। कोरोना की बंदी से उत्पन्न महामंदी के कारण विकास दर -24 प्रतिशत के भयावह स्तर तक पहुँच गया था। धीरे-धीरे वह सँभलते हुए -7.7 प्रतिशत तक आया बताया जाता है और आगामी वित्त वर्ष में उसके डबल डिजिट में अर्थात 10 या 11 प्रतिशत तक रहने का अनुमान लगाया जाता है। हालाँकि प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री इस बात से, आँकड़ों को गलतफहमी उत्पन्न करने वाला मानते हुए, इंकार करते हैं कि अभी भी विकास दर 7.7 प्रतिशत है। लेकिन यदि सरकारी आँकड़ों को ही मान लिया जाये और विकास दर की आगामी भविष्यवाणी को भी स्वीकार कर लिया जाए तो भी, 8 प्रतिशत के गढ़े को भरने के बाद, वास्तविक विकास दर 2-3 प्रतिशत से आगे बढ़ती हुई नहीं दिखाई पड़ती है। यह आने वाले वित्त वर्ष के लिए भी एक डरावना सत्य है। मैनुफेक्चरिंग के तमाम सेक्टर अभी मंदी की मार से उबर नहीं सके हैं। इसका प्रमुख कारण है आम लोगों के हाथ में उपभोग की वस्तुओं को खरीदने के लिए पैसा नहीं है। ऐसी स्थिति में तमाम अर्थशास्त्री चीख-चीखकर अंतिम आदमी के हाथ तक पैसा पहुँचाने की सलाह देते रहे हैं। आम आदमी के हाथ में पैसा आयेगा तो वह सामान खरीदेगा। बिक्री बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ाने की जरूरत होगी, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। इस तरह बाजार में जान आएगी तो अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी। इससे कोरोना के पहले से ही विगत 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुँची हुई और अभी CMIE के अनुसार जनवरी, 2021 में भी शहरी क्षेत्रों में 8.08 प्रतिशत की बेरोजगारी को कम करने में मदद मिलती। तो आम आदमी के पास पैसा पहुँचाना कई समस्याओं का एक इलाज था, जिससे बाजार में भी समृद्धि आती और बेरोजगारी दूर होती।

परंतु आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने का कोई विजन इस बजट में दिखाई नहीं देता है। बल्कि उसकी आय कम करने का ही प्रयास इस बजट में दिखाई पड़ता है। आम आदमी तक पैसा पहुँचाने की दो बड़ी योजनाएँ अभी चल रही हैं - मनरेगा और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना। मनरेगा ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार की गारंटी देकर गरीब लोगों के हाथ में पैसा पहुँचाता है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस बजट में मनरेगा के बजट में भारी कटौती की गई है। वित्तवर्ष 2020-21 के संशोधित बजट में मनरेगा का बजट जहाँ 111500.00 करोड़ था, वहीं इस बार के बजट में मात्र 73000.00 करोड़ ही उसके लिए आबंटित किया गया है। इसका मतलब है कि अब मनरेगा के तहत काम के दिवस कम होंगे। इससे उद्योगों से निष्काषित ग्रामीण मजदूर और भी अधिक आर्थिक तंगी के शिकार होंगे। इसी प्रकार प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में पिछले वर्ष 75000.00 करोड़ का प्रावधान किया गया था। लेकिन इस बार के बजट में उसके लिए महज 65000.00 करोड़ ही आबंटित किया गया है अर्थात 10000 करोड़ की कमी की गई है। संभाव है, संशोधित बजट में इसे और भी कम किया जाय। इसका मतलब है कि इस योजना के लाभार्थी अब न बढ़ेंगे और पुराने लाभार्थियों को भी लाभ से वंचित किया जाएगा। इस तरह विशेषज्ञों के द्वारा सुझाए गए सरल और प्रभावशाली उपाय को इस बजट में एक सिरे से नकार दिया गया है। इससे न तो दलदल में धँसा हुआ अर्थव्यवस्था का छक्का जल्दी से सड़क पर आयेगा और न ही बेरोजगारी के अंधेरे से देश उबर पाएगा।

एक ओर तो आम आदमी की आय में कमी आई है और दूसरी ओर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महँगाई दर अप्रैल 2020 से ही लगातार 6 प्रतिशत से ऊपर है। यह आरबीआई के ऊपरी टारगेट से भी ज्यादा है। नवंबर 2020 के लिए यह 6.92 प्रतिशत थी और इसके पिछले महीने में यह 7.6 प्रतिशत थी। इस महँगाई के अनियंत्रित दुर्वह बोझ से लोग कराह रहे हैं। लेकिन इस महँगाई को नियंत्रित करने के लिए वित्तमंत्री ने अपने अभिभाषण में न तो कोई चिंता जाहिर की और न ही बजट के प्रावधानों में कोई प्रयास किया। इस अपेक्षा के उलट ऐसी व्यवस्था की गई है, जिससे महँगाई के और भी बढ़ने की ही संभावना है। पेट्रोल और डीजल ऐसी चीज है, जिसकी कीमत बढ्ने से लोगों के आवागम की सहजता तो प्रभावित होती ही है, सारी वस्तुओं की कीमत बढ़ती है। इस वर्ष के बजट में पेट्रोलियम और गैस के बजट आबंटन में लगभग दो तिहाई की भारी कमी करते हुए पिछले साल के 42901.0 करोड़ के बजट को घटाकर 15943.78 करोड़ कर दिया गया है। इससे साफ जाहिर होता है कि बढ़ती हुई महँगाई के प्रति सरकार न तो चिंतित है और न ही इसे नियंत्रित करने की फिक्र है।

यह बजट अभूतपूर्व महामारी के काल में पेश किया गया बजट है। स्वास्थ्य का क्षेत्र बजट में एक बड़े आबंटन की बाट जोह रहा था। स्वास्थ्य में बड़े आबंटन की आवश्यकता इसलिए थी कि अभी देश कोरोना के इलाज, बचाव और टीकाकरण के एक बड़े युद्ध में फँसा हुआ है। बजट को पेश करते हुए वित्तमंत्री ने अपने अभिभाषण में बजट के जिन छह स्तंभों का जिक्र किया, उसमें पहला ‘स्वास्थ्य और कल्याण’ ही है। भाषण में तो यह प्राथमिकता दिखती है, लेकिन प्रावधान में इससे बिलकुल उल्टा दिखाई पड़ता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण का संशोधित बजट वित्तवर्ष 2020-21 में जहाँ 78866.00 करोड़ था, वहीं 2021-22 के बजट में घटकर वह महज 71268.77 करोड़ ही रह गया। इसका मतलब होता है कि स्वास्थ्य सेवा की पहले से ही अपर्याप्त सुविधाओं में और भी कटौती की जाएगी।

शिक्षा भी ऐसा ही क्षेत्र है। इसमें अधिक ध्यान देने की जरूरत इसलिए थी कि लगभग एक साल से बंद पड़े शैक्षिक संस्थाओं को फिर से चालू करने, महामारी से बचाने के सुरक्षात्मक उपाय करने, लंबे समय से बंद रहने के कारण छीजन, विशेषकर बालिकाओं का छीजन रोकने और सबसे अधिक नई शिक्षा नीति के प्रावधानों को लागू करने और उसमें 6 प्रतिशत व्यय के वादे को पूरा करने की जरूरत थी। परंतु शिक्षा में भी पिछले साल से इस बार कटौती की गई। पिछले साल विद्यालय शिक्षा का बजट जहाँ 59845.00 और उच्च शिक्षा का बजट 39466.52 करोड़ था, वहीं इस वर्ष वह घटकर महज क्रमश: 54873.66 और 38350.65 करोड़ ही रह गया। शिक्षा और स्वास्थ्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए 2 प्रतिशत सेस कर लगाने की व्यवस्था तो कर दी गई, लेकिन मध्याह्न भोजन जैसे महत्वपूर्ण योजना पर व्यय को, जिसके बारे में नई शिक्षा नीति में नाश्ता भी देने की बात कही गई है, पिछले वर्ष के संशोधित 12900.00 से घटाकर 11500.00 कर दिया गया है। समग्र शिक्षा के आबंटन को भी कम किया गया और कुल मिलाकर शिक्षा में स्टेट के ऐड ग्रांट को 38114.73 करोड़ रुपये से घटाकर 33480.11 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इतना ही नहीं वित्तमंत्री ने वर्तमान बजट को जिन छह स्तंभों पर खड़ा किया है, उसमें से पाँचवाँ ‘नवप्रवर्तन और अनुसंधान एवं विकास’ है, वह मुख्य स्तंभ भी इस बजट के आबंटन में भरभराकर गिरता हुआ दिखाता है। अनुसंधान के लिए पिछले वर्ष जहाँ 307.40 करोड़ की व्यवस्था की गई थी, वहीं इस वर्ष उसके लिए महज 237.40 करोड़ ही आबंटी किए गए हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स एडुकेशन एंड रिसर्च का बजट भी 993.05 करोड़ से घटाकर 946.00 करोड़ कर दिया गया है। स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट में भारी कटौती यह इंगित करती है कि इन क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के हवाले किए जाने की योजना है।

हाल ही में ओक्सफेम की रिपोर्ट में, भारत में, दहशतनाक रूप से दो-चार पूँजीपतियों के हाथों में सारे धन के संकेंद्रित होने का खुलासा किया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एक प्रतिशत आबादी के पास 70 प्रतिशत जनसंख्या की कुल संपत्ति का चार गुना पैसा है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि इसी देश के एक उद्योगपति मुकेश अंबानी को कोरोना की बंदी के दौरान एक घंटे में जितनी आमदनी हुई, एक मजदूर को उतना कमाने में 10 हजार साल लगेंगे। असमानता असंतोष को उत्पन्न करती है। किसी भी लोकतान्त्रिक और समानता के सिद्धांतों पर आधारित राज्य-व्यवस्था के लिए यह चिंताजनक स्थिति होनी चाहिए। परंतु बजट में न तो आम आदमी की आय बढ़ाने की चिंता जाहिर होती है और न ही मुट्ठीभर पूँजीपतियों पर अतिरिक्त करारोपन की व्यवस्था दिखाई पड़ती है। इस तरह इस विषय पर कोई व्यवस्था नहीं करके सरकार ने इस असमानता को पोषित ही किया है।

ऐसा नहीं है कि आय की कमी के कारण आवश्यकताओं के खर्च में कटौती की गई है। पिछले साल के 3042230 करोड़ की अपेक्षा इस वर्ष के बजट का आकार 3483235.63 करोड़ का हो गया है। खर्च का आकार बढ्ने का अर्थ है कि आय का आकार बढ़ा है। अर्थात यह पैसे की कमी का सवाल नहीं है। इसके अलावा कई सारे ऐसे क्षेत्र भी हैं, जिनके बजट में बढ़ोत्तरी से आम आदमी के जीवन में फौरन लाभ नहीं होगा, परंतु उन क्षेत्रों के बजट में अप्रत्याशित वृद्धि की गई है और कई ऐसे क्षेत्र भी हैं, जिनके लिए इस वर्ष के बजट से ही शुरुआत की गई है, जैसे - ‘भारतीय ज्ञान प्रणाली’। इन खर्चों को कम करके या रोककर तात्कालिक आवश्यकता के मदों में आपूर्ति को बढ़ाया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया है।

इस प्रकार आवश्यकताओं की कसौटी पर यह बजट खरा नहीं उतरता है।

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